पटना। बिहार विधानसभा का सत्र 1 दिसंबर से शुरू होने जा रहा है, लेकिन उससे दो दिन पहले हुई महागठबंधन की बैठक ने सियासी तापमान बढ़ा दिया है। 29 नवंबर को पटना में हुई इस अहम बैठक में तेजस्वी यादव को महागठबंधन का विधायक दल का नेता चुन लिया गया, लेकिन कांग्रेस की खाली कुर्सियों ने पूरे माहौल की दिशा बदल दी।
आरजेडी और वामपंथी दलों के सभी विधायक मौजूद थे, पर कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं पहुंचा। सिर्फ एमएलसी समीर कुमार सिंह ने औपचारिक उपस्थिति दर्ज कराई। कांग्रेस ने कहा कि उनके विधायक दिल्ली में अपनी अलग रणनीतिक बैठक में व्यस्त हैं, जबकि अंदरखाने की खबरें संकेत दे रही हैं कि पार्टी ने महागठबंधन नेतृत्व से दूरी बनाने का मन लगभग तय कर लिया है।
कांग्रेस की गिरती स्थिति और नई रणनीति
2025 में महागठबंधन के साथ चुनाव लड़कर भी कांग्रेस सिर्फ 6 सीटों पर सिमट गई और उसका वोट-शेयर 8.71% पर अटक गया। पार्टी नेताओं का मानना है कि राजद के नेतृत्व में कांग्रेस अपना वोट बैंक नहीं बचा पाई, जबकि उसका पारंपरिक वोट आरजेडी की ओर बह गया। यही वजह है कि दिल्ली की समीक्षा बैठक में कांग्रेस के कई नेताओं ने राहुल गांधी से साफ कहा—"राजद के साथ चलकर कांग्रेस खत्म हो जाएगी।"
बीते दो दशकों में बिहार में कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार गिरता गया है। 2005 में 9 सीटें, 2010 में 4, 2015 में गठबंधन की बदौलत 27, 2020 में 19, और 2025 में फिर से मात्र 6 सीटों तक सिमटना—पार्टी की कमजोर होती जमीन बयां करता है।
अब दुविधा—साथ रहे या अलग हो जाए?
कांग्रेस के सामने दो बड़े विकल्प हैं—
1. महागठबंधन में रहकर अगले चुनाव में 100 सीटों की मांग।
2. गठबंधन से पूरी तरह अलग होकर अकेले चुनाव लड़ना।
विशेषज्ञ कहते हैं कि कांग्रेस भले अकेले सिर्फ 10–15 सीटें जीते, पर उसकी राजनीतिक पहचान सुरक्षित रहेगी।
अब नजरें कल से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र पर होंगी, जहां तेजस्वी यादव विपक्ष के नेता के रूप में बोलेंगे, लेकिन कांग्रेस के छह विधायक किस भूमिका में दिखेंगे—यही बिहार की राजनीति का अगला दिलचस्प अध्याय बनेगा।
