नई दिल्ली। बिहार की राजनीति लंबे समय से जातीय समीकरणों पर आधारित रही है, लेकिन 2025 के विधानसभा चुनावों ने इस परंपरा को बदलकर रख दिया। नतीजों से साफ है कि इस बार मतदाताओं ने जाति नहीं, बल्कि काम, विकास और मुद्दों को प्राथमिकता दी। जहां 2020 के चुनावों में लगभग 90% सीटों पर जातीय राजनीति का प्रभाव दिखाई देता था, वहीं 2025 में यह प्रभाव घटकर सिर्फ 60% पर सिमट गया।
243 सीटों वाले विधानसभा के आंकड़ों से साफ झलकता है कि कई प्रमुख जातियों के प्रतिनिधित्व में भारी गिरावट आई है। यादव समुदाय, जिसे दशकों से प्रदेश की राजनीति का निर्णायक माना जाता था, उसका प्रतिनिधित्व इतिहास में पहली बार आधा से भी कम हो गया। 2020 में जहां यादवों के 45 विधायक जीते थे, वहीं इस बार यह संख्या घटकर मात्र 20 रह गई। 2015 में यह संख्या 61 थी। यह गिरावट RJD के लिए बड़ा झटका मानी जा रही है।
राजपूतों के विधायक 28 से घटकर 20, भूमिहार 21 से घटकर 16 और कुर्मी–कुशवाहा 16 से घटकर 13 पर पहुंच गए। मुस्लिम विधायकों की संख्या में भी बेहतरीन गिरावट दर्ज की गई—2020 के 18 के मुकाबले यह संख्या सिर्फ 8 रह गई है। अनुसूचित जाति के विधायक भी 31 से घटकर 24 पर आ गए हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यह नतीजे बिहार में चुनावी व्यवहार में बड़े बदलाव की ओर संकेत करते हैं। पारंपरिक MY (मुस्लिम–यादव) समीकरण, जो लालू-तेजस्वी की राजनीति की रीढ़ माना जाता था, वह भी इस बार प्रभावी नहीं रहा। कई सीटों पर युवा और पहली बार वोट करने वाले मतदाताओं ने जाति आधारित अपीलों को खारिज कर विकास, रोजगार और शासन व्यवस्था को प्राथमिकता दी।
यह चुनाव बताता है कि बिहार अब जातीय खांचों से बाहर निकलकर काम की राजनीति की ओर तेजी से बढ़ रहा है, जो आने वाले वर्षों में राज्य की राजनीति को नई दिशा दे सकता है।
